Monday, October 10, 2011

एक सवाल आपसे और स्वंय से


एक सवाल आपसे और स्वंय से
(यह क्रति मैने सन 1956 और 1967 के बीच लिखी थी । मुझे मालूम है कि इसमे बहुत सी कमियां और अधकचरापन है, जिसे मैने इसके डिजीटायिझेशन के दौरान महसूस किया है। पर उसे सुधारने के स्थान पर मूलरूप मे ही रखना मुझे अधिक उचित लगा.)  

   हर मनुष्य के जीवन मे एक बार तो यौवन आता ही है, और उसके कदम रखते ही ह्रदय मे कुछ सवाल उठते हैं – अनगिनत सवाल । वह एकाएक ही संसार के प्रति सजग हो उठता है। अपने चारों ओर व्यक्तियों को देखता है, समाज को देखता है, देश को देखता है। वह महसूस करता है कि देश और समाज की हर चीज़ एसी है, जैसी नही होनी चाहिये। वह ख़ुद से पूछंता है कि यह क्या है ? एसा क्यों है ? वह कुछ जानना चाहता है, कुछ करना चाहता है, पर वह आश्चर्यचकित रह जाता है जब उसका सबसे अधिक विरोध वह लोग करते हैं जिनका वह आदर करता आया है, पूज्यनीय समझता आया है ।
उसकी उम्र उसे अपने हम उम्र विपरीत सैक्स की ओर आकर्षित करती है, उसकी चेतना पर रंगीनियां छाने लगती हैं, जीवन मधुर लगने लगता है, लेकिन उसे टोक टोक कर यह बताया जाता है कि यह लत है, पाप है । जब उसके ह्रदय मे बरदस्त आकर्षण पैदा होता है जिसे वह रोक नही पाता है, और वह जिनकी ओर दिशा निर्दश के लिये देखता है, उसके इस आकर्षण को,मन की इस मधुर भावना को पाप बताते हैं तो उसके ह्रदय मे गिल्टी कान्शसनेस पैदा होजाती है । वह स्वंय को अपविञ, अपराधी लमझने लगता है। यह कुठांएं उसके अर्तंमन मे बैठ जाती है। वह या तो कायर या फिर विद्रोही होजाता है । इससे कई बार उसका और उसके कई साथियों का जीवन नष्ट होजाता है ।
  अपने समाज और देश की अवस्था से उसका ह्रदय विद्रोह करता है।वह इस सी गली व्यवस्था  को जड़मूल से नष्ट कर एक नये पाखंङ, आङम्बर तथा आत्याचार विहीन समाज के निर्माण का स्वपन देखता है। हर यौवन क्रांन्तीकारी होता है, पर परिवार एवं समाज के बंधन, यौन आकर्षण, बढता हुआ जीवन संर्षघ, निराशाएं और कुठांऐं पग पग पर उसकी क्रांन्तीकारी भावनाओं को कुठिंत करती जाती हैं और अतं मे लह भी इसी मुर्दा समाज का एक मुर्दा पुर्ज़ा माञ बन कर रह जाता है। आज भी भारत का यौवन देश के लिये हर कुर्बानी देने के लिये तत्पर है। पिछले संर्घषो मे इस अदम्य  ललक ने अपनी चमक से सबको अचम्भित कर दिया है, पर कुछ करने सकने की यह ललक, क्रान्ती का आव्हान करने की यह आग   आज व्यर्थ नष्ट ही नही हो रही है, बल्की देश मे ही विध्वंसक कार्यवाही करने लगी है। बढ़ती हुइ अनुशासनहीनता,हिंसा, तोड़फोड़ और नक्सलवाद इसी आग की परिणीती हैं।
राष्ट्र का सामाजिक व राजनैतिक नैत्तृव दीवालिया होगया है एक शून्य सा बन गया है। एसे शून्यता पूर्ण वातावरण मे भारतीय आयाम को बुनियादी नैत्तृव कौन प्रदान करेगा? यौवन की इस उफनती हुई सरिता पर मज़बूत बाधं बनाकर कौव इस असीम शक्ती को नयी दिशा प्रदान कर नवीन भारत के निर्माण के लिये प्रेरित करेगा?
  विचारों के इन झंझावातों मे ही मन ने एक प्रश्न पूछां कि इस दिशा निर्देश मे देश के बुद्धीजीवी वर्ग का क्या कुछ भी उत्तरदायित्व नही है? यदि देश का यह बौद्धिक वर्ग का, देश का यह मस्तिष्क ही दिशाहीन, भ्रमित होगा तो देश के जनमानस का क्या भविष्य होगा? किसी भी देश के लिये क्या यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य नही है कि उसके राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक और बौद्धिक चेतना स्ञोतों के बीच एक न पटने वाली खाई सी बन जाऐ, और बौद्धिक वर्ग उदासीन दर्शक माञ बन कर रह जाए?
       राष्ट्र की वर्तमान राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक और बौद्धिक स्थिती से कोइ भी विचारक संतुष्ट नही है। आर्थिक दुरावस्था,राजनैतिक, सामाजिक आर्थिक एवं व्यक्तिगत भ्रष्टाचार, और नैतिक मूल्यों के ह्वास के जंगलो मे स्वतंञता ऐसी फंस गयी कि इसके वरदान कुछ ही व्यक्तियों के हाथों मे सीमित होकर रह गये, आम जनता का जीवन तो और भी कठिन होगया। ऐसी नैराश्यपूर्ण अवस्था मे यह दिगभ्रमित यौवन इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था का जुआ उतार फेंकने के लिये सशस्त्र क्रांति का सहारा न ले यह आश्चर्य है। ऐसे क्रांतिकाल मे अवसरवादी उग्र तत्व जनमानस की दिगभ्रमित कमज़ोरी का लाभ उठाकर इस सशस्त्र क्रांति का नैत्रत्व पर अपना कब्ज़ा न कर ले और सर्वहारा के अधिनायकवाद के नाम पर एक अन्य समूह के अधिनायकता की दासता न भुगतनी पड़ जाऐ व सामान्य नागरिक का जीवन और अधिक संत्रासपूर्ण होजाए। हमारे पड़ोसी देश, यथा चीन, इन्डोनेशिया, बर्मा व पाकिस्तान का उदाहरण हमारी स्मृति मे अभी ताज़े हैं।
  जीवन की यह कितनी बड़ी त्रासदी है कि वर्गों के विरुद्ध ज़ैहाद का नारा देनेवाले एक नये वर्ग बना लेते हैं और थीसिस, एंटीथीसिस व सिन्थीसिस की बात करनेवाले अपनी थीसिस को अंतिम सत्य मान लेते हैं। वादों के इस संर्घष मे जनता का हाथ तो खाली का खाली ही रह जाता है। तो फिर आख़िर किया क्या जाए? घटनाओं के इस अर्थहीन प्रवाह मे एक उदासीन दर्शक मात्र बन कर बैठने से ही क्या हमारा उत्तरदायित्व पूरा हो जाता है? क्या इस देश के प्रति, इस समाज के प्रति और भारत के इन करोड़ों नर नारियों के प्रति हमारा, इस बुद्धीजीवी वर्ग का, कोइ उत्तरदायित्व नही है? विदेशों से ' रेडीमेड ' आयातित साम्यवाद, पूंजीवाद या भ्रषटाचार हटाओ अभियान के नारे लगाकर, फैक्ट्ररियों व सस्थानों मे हड़ताल कर, रेलवे ट्रेनों, प्लेटफार्मों, बसों और बाज़ारों मे आग लगाकर, व कुछ अधिकारियों का घेराव कर ही हमारा कर्तव्य पूरा होता है? क्या हम कुछ भी सकारात्मक विचार या मंथन नही कर सकते? क्या हमारे सोंचने और समझने के स्नायुओं पर पक्षाघात हो गया है?
  इन्ही अनेकों प्रश्न चिन्हों के समझने के प्रयास मे मुझे जो एक रास्ता सा दिखा, उसी को भेंट है यह ' एक स्वपन '

  मै यह दावा नही करता कि मैने इस कृति मे कुछ मौलिक चिन्तन प्रस्तुत किया है या कोइ नयी विचारधारा इंगित की है। गांधीवाद को भ्रामक, अधकचरा और मात्र सैद्धांतिक कह कर हंसी मे उड़ा देनेवालों के सामने उसको एक प्रेक्टिकल माडल के रूप मे प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। कोइ भी वाद ख़ुद मे अच्छा या बुरा नही होता, उसकी अच्छाई या बुराई इस बात पर निर्भर करती है कि वह वास्तविक स्थितियों मे कितना उपयुक्त और उपयोगी सिद्ध होता है। शायद मार्कस् वाद भी अपने शुद्ध रूप मे कइ पूर्व के अनेकों सिद्धांतो की तरह पुस्तकालयों की आलमारियों की शोभा ही होता अगर लेनिन स्टालिन और माओ उसमे फेरबदल कर अपने अपने मुताबिक उपयोगी नही बनाते। लेकिन हमने गांधी के विचारों को कितनी बार,( मात्र थोथी दुहाई देने के अलावा ) पुस्तकालयों की चारदीवारी से बाहर निकालकर देश की यर्थाथ स्थिति के अनूरूप प्रयुक्त करने का प्रयत्न किया है? किसी भी वाद के सबसे बड़े दुश्मन अगर वह लोग हैं जो उसे बिल्कुल बेकार कहकर उसे रद्दी की टोकरी के उपयुक्त णानते हैं तो उनसे भी अधिक  बड़े दुश्मन वो हैं जो उस वाद को मानवीय विचारधारा का अंतिम सत्य मानकर उसमे किसी भी प्रकार का संशोधन स्वीकार नही करते। कुछ,अन्ना हज़ारे जैसे लोग स्व्यं को गांधी का उत्तराधिकारी घोशित कर उसका अपने स्वार्थ के आधार पर अपभ्रंशित कर देश पर थोपने का प्रयास करने से बाज़ नही आते।
  दुर्भाग्य से विश्व मे इन्ही लोगों का बाहुल्य है, क्योकि हम सोंचना नही चाहते। जो कुछ मार्क्स या गांधी ने कहा है वही अंतिम सत्य है, हम सोचंने का कष्ट क्यों करे, या पश्चिम के कुछ विचारक इसे बेकार मानते हैं इसीलिये हम भी मान लें। वृथा चिंतन का कष्ट क्यों किया जाय? लेकिन यह स्थिति कब तक चलेगी? राजनैतिक स्वतंत्रता के बाद हम कब मानसिक व बौद्धिक स्वतंत्रता प्राप्त करेंगे? अमेरिका, रूस या चीन की ओर मार्गदर्शन के लिये देखने वाले विचारक कब स्वतंत्र होकर अपना मार्ग स्वयं निर्धारित करेगें?