Wednesday, September 21, 2011


काली रेखाऐं

चन्द्रबदन हिमगिरजा के आंचल मे,
   इन्द्र धनुष की सतरंगी पाशो मे,
 मुक्त रूप से रवी लुटाता आभा अपनी
व्दार खुला है, आओ चाहे जितना ले लो।
वह देखो कोमल लतिका के
 इस पल्लव के नीचे, अभी अभी
  जो खिली नयी नयी सी एक कली,
   लुटा रही है अपना सोरभ मुक्त रूप से 
     स्वर्ग बना जाता हौ उपवन, और
  आम की इस बौराई डाली पर,
   सपनों मे खोयी खोयी सी कोयल
    कूहू S कूहू S कूक रही है गूजं रहे
 हैं इस उपवन मे किसी अजाने
     विरही  की तानो  के  सुर ।
इस असीम सागर की यह
 ऊंची ऊंची लहरें, उमड़ रही हैं
  जो रत्नाकर को छूने को, किसने
    इनको अब तक बांधा बधंन मे ।
पागल मानव, मुक्त प्रकृति जब
 सुन्दरता उसकी जब सभी असीम है,
   तब तू क्यों दो ह्रदयों के बीच आज
     दीवार खींचता है, धर्म, रंग की और
 देश की यह छोटी छोटी सीमाऐं
  कब तक बांध सकेंगी? मानवता
    के प्रबल प्रवाह को। अरे खोल
     दे अब तो ह्दय कपाट तो, आने
      दे उन्मुक्त रूप से शुभ्र प्रकाश को।
       मिट जाने दे दो ह्रदयों के बीच खिंची जो
 नक्शों की इन काली काली रेखाओं को

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